अहिंसा का सामान्य अर्थ है—दूसरों को न सताना किन्तु यह केवल इसका एक पक्ष है। जिस तरह बिजली के तार ‘निगेटिव’ और ‘पोजीटिव’ दो तरह के होते हैं, उसी तरह अहिंसा का ‘निगेटिव’ पक्ष है—दूसरों को न सताना और ‘पॉजिटिव’ पक्ष है—दूसरों की यथाशक्ति सेवा-भलाई करना। मैत्री, करुणा, सहिष्णुता, सहानुभूति आदि सब शब्द अहिंसा के ही पर्याय हैं। अहिंसा का एक तीसरा सबसे बड़ा पक्ष और भी है, वह है—स्वयं को न सताना। स्वयं को सताये बिना आदमी दूसरों को सता ही नहीं सकता। जब भी हम दूसरों को मारने या सताने की सोचते हैं तभी हमारी रात की नींद गायब हो जाती है। पहले हम स्वयं दुखी होते हैं तब दूसरों को कष्ट होता है। दूसरों को कष्ट हो ही, यह निश्चित नहीं है किन्तु स्वयं को कष्ट होना अनिवार्य है। दूसरों पर कीचड़ फेंकने से यह जरूरी नहीं कि दूसरा गन्दा ही हो किन्तु फेंकने वाले के हाथ तो गन्दे होते ही हैं।
साध्वी विनीत प्रज्ञा ने कहा
अहिंसा का सामान्य अर्थ है ‘हिंसा न करना’। इसका व्यापक अर्थ है – किसी भी प्राणी को तन, मन, कर्म, वचन और वाणी से कोई नुकसान न पहुँचाना। मन में किसी का अहित न सोचना, किसी को कटुवाणी आदि के द्वार भी नुकसान न देना तथा कर्म से भी किसी भी अवस्था में, किसी भी प्राणी कि हिंसा न करना, यह अहिंसा है। जैन धर्म में अहिंसा का बहुत महत्त्व है। जैन धर्म के मूलमंत्र में ही अहिंसा परमो धर्म: (अहिंसा परम (सबसे बड़ा) धर्म कहा गया है। आधुनिक काल में महात्मा गांधी ने भारत की आजादी के लिये जो आन्दोलन चलाया वह काफी सीमा तक अहिंसात्मक था।
साध्वी चंदन बाला ने कहा
भगवान महावीर ने अपनी वाणी से और अपने स्वयं के जीवन से इसे वह प्रतिष्ठा दिलाई कि अहिंसा के साथ भगवान महावीर का नाम ऐसे जुड़ गया कि दोनों को अलग कर ही नहीं सकते। अहिंसा का सीधा-साधा अर्थ करें तो वह होगा कि व्यावहारिक जीवन में हम किसी को कष्ट नहीं पहुंचाएं, किसी प्राणी को अपने स्वार्थ के लिए दुख न दें।
इस सभा मे हेमत जी भंडारी, कोमल जी भंडारी, हेमलता जी भंडारी, जी की तपस्या का स्वागत और अभिनंदन किया गया
इस धर्म सभा का संचालन ललित जी दांगी ने किया