साध्वी आनंद प्रभा जी के प्रेरक उद्बोधन
की सुख-दुख का निर्धारण् स्वंय के कर्म होते हैं। कर्मानुसार ही फल प्राप्त होता है। पाप का प्रतिफल स्वंय को भुगतना पड़ता है। इसमेें कोई सहभागिता नहीं कर सकता है। सुख मे आपके साथ रहने वालों की भीड़ होती है, लेकिन दुख के दौरान आप अकेले हो जाते हैं। कहने का अर्थ यह है कि सुख में सभी साथ देते हैं, लेकिन दुख में कोई मदद नहीं करता है। समझदार व्यक्ति एक बार ठोकर लगने पर ही संभल जाता है। अपनी गलती का पुनरावर्तन ना करने के लिए संकल्पित बन जाता है। मूर्खां में ऐसा नहीं होता है। वह अपनी गलती से सबक ना लेने के कारण कई बार ठोकर खाते हुए खेद प्राप्त करता है। इंसान से भूल होना स्वाभाविक है। भूल को स्वीकार करना ही सच्ची साधना है। पाप कभी नहीं छिपता है। इसे छिपाने के अनगिनत प्रयास भी असफल हो जाते हैं। पाप छिपा हुआ नहीं रह सकता। व्यक्ति को पाप से घृणा करनी चाहिए, पापी से नहीं
साध्वी विनित रूप प्रज्ञा ने कहा
की सुख और दुख जीवन रूपी सिक्के के दो पहलू हैं। जीवन गंगा धारा के समान है। कभी सुख तो कभी दुख आते ही रहते हैं, इससे न घबराएं। सुख भी स्थायी नहीं है, तो दुख भी स्थायी नहीं है। उन्होंने कहा की दुनिया में शायद ही ऐसा कोई इंसान हो जो दुखी न हो। दुख इस दुनिया की वह सच्चाई जिससे हर किसी को रूबरू होना ही पड़ता है। जो दुख को सहने की क्षमता रखते हैं वही सुख की दुनिया तक पहुंच पाते हैं और जो इसे नही सह पाते वे जिन्दगी से रिश्ता तोड़ लेते हैं। अगर आज आप सुखी हैं तो घमण्ड मत कीजिए बल्कि लोगों से प्रेम व्यवहार बना कर रखिए ताकि जब भी आप पर कोई दुख आए तो लोग आपकी मदद को आगे आएं।
साध्वी चंदन बाला ने कहा
की सच्चा व्यक्ति वही व्यक्ति है जो सुख और दुख को समान भाव से ग्रहण करे। उन्हाेंने कहा मनुष्य को हर कर्म भगवान को समर्पित करना चाहिए। यदि मनुष्य इस धारणा से कर्म करेगा तो उसकी ममता धीरे-धीरे क्षीण होती जाएगी और उसका मन निर्मल और शुद्ध होने के साथ-साथ उसमें भक्तिरस भी उत्पन्न होगा।संसारमें मनुष्य के दुखी रहने का सबसे बड़ा कारण उसका आसक्त होना है। वह किसी के भी प्रति आसक्ति रखता है तो चाहे भाई-बहिन, माता-पिता, भाई बंधु, पुत्र-पौत्र या किसी वस्तु के प्रति तो उसे उसके बिछुड़ने या समाप्त होने या खो जाने पर दुख का सामना करना पड़ता है।प्रसन्नता संसार का सबसे बड़ा सुख है, जो प्रसन्न है, वह सुखी है और जो सुखी है वह अवश्य प्रसन्न रहेगा। प्रसन्न मन ही आत्मा को देख सकता है, परमात्मा का साक्षात्कार कर सकता है और जीवन के समस्त श्रेयों को पा सकता है। जीवन को हर प्रकार से सफल बनाने के लिए प्रसन्न रहना आवश्यक है। धर्म सभा का संचालन ललित जी डांगी ने किया बाहर से आए हुए अतिथि का स्वागत श्री संघ ने शाल माला पहनाकर किया