आमेटके जैन स्थानक मे चातुर्मास विराजित साध्वी चन्दन बाला ने कहा
की सबसे पहला पुण्य है, अन्न पुण्य। अन्न के आधार पर ही प्राण टिके रहते है। अत्र ही जीवन का अवलंबन है। अन्न से ही जीवन का निर्माण भी होता है। आहार से ही शरीर बनता है, इन्द्रियों का निर्माण होता है। अच्छे आहार से संस्कार भी अच्छे ही बनते हैं। जबकि, कुत्सित आहार से संस्कार बुरे ही बनते हैं तथा आचरण भी बुरा ही होता है। भूख को नियंत्रण कर पाना सामान्य गृहस्थ के लिए बहुत ही कठिन काम है। पुण्य उपार्जन के लिए जिनके पास साधनों का आभाव है या आवश्यकता से भी कम साधन है, की भी बिना कहे ही सहायता करनी चाहिए।
केवल अपने ही सम्प्रदाय के अनुयायियों का नहीं, मानव-मात्र तथा प्राणी-मात्र की सेवा का ध्यान रखना चाहिए। दया, करुणा अनुकंपा से प्रेरित होकर भोजन देना अन्न पुण्य है। अन्न की गरिमा तथा उपयोगिता को समझने वाला इसका अपव्यय नहीं करता। अन्नदान पुण्य की पहली सीढ़ी है।
साध्वी विनीत प्रज्ञा ने कहा
की मानव जीवन परम दुर्लभ है। जहां आज जगत में कामधेनु गाय, कल्पवृक्ष, चितामणी और देव दर्शन का मिलना सुलभ नहीं है, लेकिन फिर भी जप-तप से कोई व्यक्ति इसे हासिल कर सकता है। पर मानव जीवन किसी-किसी को ही पुण्य से ही प्राप्त होता है।अनंत जन्मों के पुण्यों का संचय होता है, तब हमें ये दुर्लभ मानव जीवन मिलता है। इस मानव जीवन का भरपूर लाभ उठाना चाहिए। ये देवता भी इस मानव जीवन को पाने के लिए तरसते रहते हैं क्योंकि पशु और देव यानि से मोक्ष नहीं पाया जा सकता, सिर्फ मनुष्य जीवन में मोक्ष के दरवाजे खुले हैं। सुखी रहना है तो इंद्रियों को वश में रखो: वास्तविक सुख वह है, जिसमें किसी आलंबन सहयोग की आवश्यकता नहीं रहती। उन्होंने कहा कि दुनिया के प्राप्त तमाम सुखों में हर किसी को सुखी रहने के लिए किसी न किसी साधन की आवश्यकता रहती है।
साध्वी आनन्द प्रभा ने कहा
इंद्रियों के तमाम कार्यों में चाहे वो श्रवण करने के, देखने के, सूंघने के खान-पान के या घूमने फिरने में जो हमारा मन सुख का अनुभव करता है, उसमें बाहर की वस्तुएं पदार्थ चाहिए। अगर ये संसाधन न हों तो हमारा मन दुख का अनुभव करता है। इसीलिए प्रभु महावीर ने इंद्रिय जन्य सुखों को अंत दुख का ही रूप दिया है। आत्मिक सुख वह है जिसमें किसी की भी आवश्यकता नहीं रहती, ध्यान मौन साधन धार्मिक चितन मनन से संबंधित रहता है। अंत इसे आध्यत्मिक सुख कहा गया है। आज का मानव अज्ञानतावश अपना संपूर्ण जीवन शरीर के इर्द-गिर्द ही बिताता चला जा रहा है। ज्ञानियों ने शरीर व इंद्रियों के भीतर आत्म भाव को जागृत करने का संदेश दिया है। जीवन में खान-पान की शुद्धता चाहिए। सात्विक आहार से तन, मन में शांति का अनुभव होता है। इसके विपरीत तामसिक आहार से क्रोध आदि विकार व तनाव उत्पन्न होते हैं। इसी के साथ दान के विभिन्न प्रकारों पर प्रकाश डालते हुए निस्वार्थ भावना से दिया गया दान ही सफल व सार्थक होता है।
धर्म सभा का संचालन ललित जी डांगी ने किया