आमेट के जैन स्थानक में जैन साध्वी विनित प्रज्ञा ने कहा
की तप के दो भेद कहे हैं- एक भीतरी अंतरंग तप और दूसरा बाह्य तप। बाहरी तप एक प्रकार से साधन के रूप में है और अंतरंग तप की प्राप्ति में सहकारी है। बाहरी तप के बिना भीतरी तप का उद्भव सम्भव नहीं है। जैसे दूध को तपाना हो तो सीधे अग्नि पर तपाया नहीं जा सकता। किसी बर्तन में रखकर ही तपाना होगा। दूध को बर्तन में तपाते समय कोई पूछे कि क्या तपा रहे हो, तो यही कहा जायेगा कि दूध तपा रहे हैं। कोई भी यह नहीं कहेगा कि बर्तन तपा रहे हैं। जबकि साथ में बर्तन भी तप रहा है। पहले बर्तन ही तपेगा फिर बाद में भीतर का दूध तपेगा। इसी प्रकार बाहरी तप के माध्यम से शरीर रूपी बर्तन तपता है और बाहर से तपे बिना भीतरी तप नहीं आ सकता। भीतरी आत्म-तत्व को तप के माध्यम से तपाकर सक्रिय करना हो तो शरीर को तपाना ही पड़ेगा। पर वह शरीर को तपाना नहीं कहलायेगा, वह तो शरीर के माध्यम से भीतरी आत्मा में बैठे विकारी भावों को हटाने के लिए, विकारों पर विजय पाने के लिए किया गया तप ही कहलायेगा।
साध्वी चंदन बाला ने कहा
की उन परमात्मा को हम बार-बार नमस्कार करते हैं, जिन्होंने परमात्मा बनने से पहले ध्यान रूपी अग्नि में अपने को रत्नत्रय के साथ तपाया है और स्वर्ण की भाँति तपकर अपने आत्म-स्वभाव की शाश्वतता का परिचय दिया है। स्वर्ण की सही-सही परख अग्नि में तपाने से ही होती है। उसमें बट्टा लगा हो तो निकल जाता है और सौ टंच सोना प्राप्त हो जाता है। जैसे पाषाण में विद्यमान स्वर्ण से आप अपने को आभूषित नहीं कर सकते, लेकिन अग्नि में तपाकर उसे पाषाण से पृथक् करके, शुद्ध करके, उसके आभूषण बनाकर आभूषित हो जाते हैं। इसी प्रकार तप के माध्यम से आत्मा को विशुद्ध करके परम पद से आभूषित हुआ जा सकता है। यही तप का माहात्म्य है।
साध्वी आनंद प्रभा ने कहा
की जब भी मुक्ति मिलेगी, तप के माध्यम से ही मिलेगी। विभिन्न प्रकार के तपों का आलम्बन लेकर जीव समय-समय पर आत्मा की आराधना में लगा रहता है, उसे ही मोक्षपद प्राप्त होता है। जब कोई परम योगी, जीव रूपी लोह-तत्व को सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूपी औषधि लगाकर तप रूपी धौंकनी से धौंक कर तपाते हैं, तब वह जीव रूपी लोहतत्व स्वर्ण बन जाता है। संसारी प्राणी अनन्त काल से इसी तप से विमुख हो रहा है और तप से डर रहा है कि कहीं जल न जायें। पर वैचित्र्य यह है कि आत्मा के अहित करने वाले विषय-कषायों में निरन्तर जलते हुए भी सुख मान रहा है। ‘आतम हित हेतु विराग ज्ञान। ते लखें आपको कष्ट दान।’ जो आत्मा के हितकारी ज्ञान और वैराग्य हैं, उन्हें कष्टकर मान रहा है। बन्धुओ! जब भी कल्याण होगा ज्ञान, वैराग्य और तप के माध्यम से ही होगा। इस धर्म सभा का संचालन ललित जी डांगी ने किया बहार से आए गुरु भक्तों का स्वागत शाल माला पहनाकर श्री संघ आमेट ने किया